कृष्ण कन्हैया मोरा पीछा करो है
बूझे नाहीं मोहे काम बड़ो है
गैय्यन के पाछे बंशी बजाये
आवाज़ उसकी मोरे मन को लुभाये
कैसे कैसे कान्हा बहाने बनाये
मिलनो को मोहे वो उकसाये
आँगन मोहे मोरे भानु चढ़ो है
किसन को ज़िद हर रोज बढ़ो है
राधा को नाहीं चाहत कान्हा
यो मोरा मन मो से बात कहो है
घर आँगन को काम करूँ या
किसन को जाऊं यो दुविधा भयो है
मन मोरा कपटी बोले जा तू राधा
कान्हा तोहे बिन हो जावे आधा
राधा सखि बन जबहुँ वो खेले
कृष्ण कन्हैया बांधे रास के मेले
हाय रे कान्हा मोरा हृदय नाहीं मानत
जा रणछोर तू काहे मन भावत
मोहे करन दे मोरे काम वो सारे
देखन नाहीं आऊं तोहे यशोदा दुलारे
किसन कन्हाई हर युग में होवे
राधा संग वो प्रेम में शोभे
मिळत कबहुँ नाहीं प्रेम प्रसंगा
कान्हो को हृदय में राधा गंगा