Thursday, February 20, 2020

अपना बनाओगे किसी को


अपना बनाओगे किसी को

सुबह की धूप बस छू कर कहीं छुप गई
यूं लगा जैसे तुम अपने बालों से उसे छुपा रहे थे

रात की करवटों से पड़ी चादर की सिलवटें
अब तक तुम्हारे लौटने का इंतज़ार करती हैं
पूछती हैं मुझसे तुम कब आओगे और मैं सोचता हूं
कुछ जवाब तुम दे दो और कुछ हम दे दें।

बागीचे के फूलों के बीच बैठक वाली चाय की प्याली
पूछती है तुम्हारा पता और ढूंढ़ती है हरेक के होंठ लगकर,
जो हवा मेरे खिड़कियों में कैद है उस दिन से बहारों की सुगंध लिए
और घड़ी की टिक टिक चाहती हैं फिर से बजना
जो तुम आओ तो इनमें जान आए जो जहान रुकी हुई है
वो एक बार फिर से रूबरू हो दिल और दिल्लग्गियों से
 फिर हम भी सांस रोक सकें फिर से और ये बोल सकें
तुम्हारे सीने से लगते ही कलेजे में ठंडक नहीं आग लगती है
क्या तुम भी कभी ऐसा बोलना चाहोगे, हवाओं को पता
अपना बताना चाहोगे, अपना बनाओगे किसीको?
या हर एक रांझा तुम्हारे लिए कुरबान होता रहे यही
दिखाना है ज़माने में तुम्हें या फिर सभी को?