रात के मन का बोझ
भोर हुई, हुआ नहीं है सोझ
अभी तक, सोच की धारा बहती जाती
कल की लपटें जलती जाती
अंगारों में रात गयी है
हुंकारों में बात हुई है
कब तक ऐसा रहेगा चलता ?
बातों से कुछ नहीं बदलता
लेखों के अंबार लगे हैं
कर्मवीर बीमार पड़े हैं
अर्जुन हो बेकार पड़े हैं
बेमानी के छीटों ने अब
बौछारों का रूप लिया है
बदलो अपनी सोच को भारत
या फिर रख लो अपनी ताकत
दुबक दुबक कर कोने में हीं
लिखते रहना कविताएँ तुम
सपनों में हीं जीत कि माला
असलियत में हार का ताला
किस्मत पर फिर रोते रहना
ओढ़ रजाई सोते रहना
बुद्धिजीवी भरे हैं सारे
हाय रे भारत तेरे तारे
जाने कब ये बदलेगा सब ?