क्रांति
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कसम तेरी जननी मुझको
आज तुम न रोकना
खादीधारी हर इक को मुझे
मृत्यु को है सोंपना
देश पे जो मर मिटे वो
आज बैठे रो रहे
क्रांति उनकी विफल हो गई
और हम सब सो रहे
तंग हूँ मैं झूठ इनके
अब सुने नहीं जायेंगे
मार कर ही इनको अपना
तिरंगा फहराएंगे
जेब अपनी भर रहे नेता
हमारी साख पर
देश की सुधि नहीं लेते
रखा है जो ताक पर
भगत गाँधी नेहरू पर वो
कसते हैं अब फब्तियां
हर तरफ़ हैं आज फैली
नंगी भूखी बस्तियां
आज तेरे चरण छू कर
तिलक करता हूँ अभी
मार डालूँ भ्रष्ट ऐसे
जन्म लें न वो कभी
यदि वापस नहीं आया
प्रण मैं ये तुझसे करूँ
जन्म फिर से यहीं लूँगा
युद्घ करने फिर शुरू !
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If you want you can listen to this poem in my voice...