डर
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अपने कमरे के कोने में
छिपता रहता डरता रहता
मन के अंदर अँधियारा है
गलियारों में परछाई है
गहराई है कहीं छिपी हुई
बस दर्द समेटे रहता हूँ
कोई दोस्त मिले बस ऐसा अब
जो थामे हाथ अंधेरों में
फिर निकल चलें
अनजान डगर
दिल के अन्दर !!!
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उन राहों पर
जहाँ गया नहीं
करवाए बोध
उजालों से
अंधियारों पर
फिर चुप्पी हों
बस ललक हो
मेरे चेहरे पर
जो देखूं मैं
जो देखें लोग
झरोंखों से अपने अपने
ताने सीना घर के बाहर
फिर निकलूँ मैं
और दिखला दूँ
डर नहीं है अब
मेरे अंदर
डर नहीं है अब
मेरे अंदर !
If you want you can listen to the poem in my voice ...